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दक्खिनी बोली पत्थर सा दरदरा लेकिन धरती से जुड़ा अहसास



मित्रों दक्खिनी नाम की भी एक बोली है । हिन्दी की ही है । नाम आपने कम सुना होगा । कृत्रिम पाठ्यक्रमों में ये स्थान नहीं पा सकी है । ऐसा नहीं है कि पाठ्यक्रम में आने से कोई बोली छोटी हो जाती हो, या बड़ी हो जाती हो । लेकिन इस विराट भूक्षेत्र में बोली जाने वाली हिन्दी की बोली का परिचय आपको क्यों नहीं है इसकी वजह बताई है बस ।

ये बोली दरअसल हैदराबाद और उसके आसपास से लेकर कर्नाटक और बंगलौर में बोली जाती है । हर उस क्षेत्र में जहाँ द्रविड़ भाषी (बोले तो साउथ इन्डियन) क्षेत्र हिन्दी भाषी क्षेत्र के साथ सीमा जोड़ रहा होता है । लेकिन सिर्फ सीमा पर नहीं बल्कि द्रविड़ भाषी क्षेत्रों के अन्दर तक इसकी पैठ है । कारण ये है कि हिन्दी की सीमा पर इसका स्वरूप जरूर तय होता है, लेकिन यह छनती हुई अन्दर तक भी पहुँचती है । उसके द्वार भले ही सीमा पर हों, लेकिन जरूरत तो अन्दर तक है । नहीं क्या ?

कुछ बानगियाँ बताते हैं इस भाषा की- 1. मई अभी आता (मैं अभी आ रहा हूँ।) 2. तुमको प्लास्टिक होना क्या ? (क्या आपको पॉलिथीन की थैली भी चाहिए ?) 3. क्या बोलता रे, तेरिको समझ में नईं आता क्या ? (क्या बोल रहा है, तुझे समझ में नहीं आ रहा क्या ? 4. कच्चा आम बोले तो हरा आम । (कच्चा आम मतलब हरा आम) 5. उधर एक मैदान है परेड ग्राउन्ड बोलके । (वहाँ एक परेड ग्राउन्ड नाम का मैदान है।

इसका नाम दक्खिनी असल में उस विशाल पठार के नाम पर है, जो कि विन्ध्याचल के दक्षिण में फैला है, वहाँ से शुरू होकर दोनों तटों के किनारों तक है और तमिलनाडु में नीलगिरी की उत्तरी सीमा पर समाप्त होता है इस पठार की बोली के और भी बहुत से रोचक किस्से हैं, जो आप तक लाए जाएँगे । ........... स्टे ट्यून्ड !!

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