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क्या है कर्मण्येवाधिकारस्ते का शाब्दिक अर्थ



नमस्कार मित्रों, आपने भगवद्गीता का यह श्लोक बारम्बार सुना होगा -

कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।

लेकिन क्या आपने इसके शब्दों पर गौर किया है ? क्या आप इसका शाब्दिक अर्थ समझ सके हैं ? .......... इस लेख का उद्देश्य इसका शाब्दिक अर्थ बताना है । क्योंकि यह भगवद्गीता का एक महत्त्वपूर्ण श्लोक है । और आप कहीं भी भगवद्गीता पर चर्चा करें तो आपको पता होना चाहिए कि ओरिजनल अर्थ क्या है वरना ऐसे बहुत से मैसेज सोशल मीडिया पर चलते रहते हैं कि गीता में लिखा है कि- ...........

जबकि उस मैसेज में आगे जो लिखा होता है उसका गीता के ओरिजनल पाठ से कोई लेना देना नहीं होता है ।

मैं मानकर चल रहा हूँ कि आपको कक्षा 10 तक पढ़ी हुई संस्कृत के नियम थोड़े बहुत तो याद होंगे ही । बस उसी आधार पर मैं इस श्लोक का अर्थ बताने वाला हूँ ।

सबसे पहले हम इसके शब्दों का सन्धिविच्छेद कर लेते हैं, ताकि फिर शब्द-शब्द करके समझना आसान हो जाए -

कर्मणि एव अधिकारः ते,

मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुः भूः,

मा ते सङ्गः अस्तु अकर्मणि ।।

अब यहाँ हम एक एक शब्द का अर्थ कर लेते हैं -

कर्मणि (कर्मन् यानी कर्म शब्द का सप्तमी एकवचन का रूप)=कर्म में

एव =ही

अधिकारः = अधिकार

ते = तेरा (यह तव शब्द का वैकल्पिक यानी दूसरा रूप होता है)

मा = न कि

फलेषु = (फल शब्द का सप्तमी बहुवचन का रूप)फलों में ।

कदाचन = कभी भी या कतई

मा = मत (नहीं)

कर्मफलहेतुः = कर्म के फलों का कारण (instrument of generating results of Karmas)

भूः = होवो (यह भू धातु का रूप है जो कि मा (मत) के साथ प्रयुक्त होने वाला विशिष्ट धातुरूप होता है जिसे लुङ्लकार कहते हैं, जो स्कूलों में पढ़ाया नहीं जाता है । इसका प्रयोग ही आगे का अ हटाकर मा (यानी मत) शब्द के साथ किया जाता है जिसका अर्थ होता है- अमुक क्रिया मत करो ।) अतः मा भूः का अर्थ है मत होवो ।

मा= मत (नहीं)

ते = तेरा

सङ्गः = संग या साथ

अस्तु = हो

अकर्मणि = (अकर्मन् यानी अकर्म शब्द का सप्तमी विभक्ति एकवचन का रूप) अकर्म में (यानी कर्म नहीं करने में)

............ तो कुल मिलाकर इसका अर्थ हुआ

तेरा अधिकार कर्म में ही है । फलों में नहीं ।

तू कर्म फल का कारण मत बन (यानी कर्म करने से जो फल उत्पन्न हो रहा है खुद को उसका कारण या इन्स्ट्रूमेन्ट मत समझ) तथा तेरा संग यानी साथ अकर्म में भी न हो (यानी तू ये सोचकर भी मत बैठ जा कि कर्म करने से क्या लाभ अतः कर्म को त्याग ही दूँ ।)

अर्थ तो आपने देख ही लिया । एक एक शब्द अपने आप में महत्त्वपूर्ण है । लेकिन यह श्लोक इतना महत्त्वपूर्ण इसलिए बन पड़ा है क्योंकि यह कर्म करने को तो प्रेरित करता ही है साथ ही कर्म करने में होने वाले विकारों से भी बचाकर रखता है ।

- This article is presented by EngHindi Team.

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